प्रेम-पीड़ा और मन
*गीत*
बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के हिस्से आया।सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह प्रेम कमाया।।
(1.) मुझको लगता मैं ही बस इस,रिश्ते को खींच रही थी। मुरझाई सी हुई जड़ों को,व्यर्थ ही सींच रही थी। मुझमें ही तो दोष रहा जो,ख्वाबों का बाग सजाया।सोच रही हूं यही खड़ी क्यों, मैंने ....
(2.) समझाती हूं पागल मन को,क्यों विचलित हो उठता है। पहले भी तो था ऐसा ही,अब तेरा क्या दुखता है।। तब भी तो गमगीन रहा तू,अब भी वो ही सब पाया।सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह.....
(3.) पहले भी तो कितनी रातें,रोकर सभी गुजारी हैं। पहले जैसे ही तो अब भी,तुझ पर मुश्किल भारी है।। फिर क्यों तुझसे न अभी जाता,दुःखों का वजन उठाया। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह....
(4)मन कहता है दुख मिलने से,मुझको कुछ फर्क नही है। समझाऊं जो कहकर खुद को,ऐसा भी तर्क नही है। ख्यालों के धागों को मैंने,कितनी बारी सुलझाया। बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के...
(5.)सच होता है बेहद कड़वा,पीछा उससे छुड़वाता। पुलाव ख्याली दिन में रहता,मैं यूंही सदा पकाता। नित रहना बस कल्पना-लोक में,इस कारण मुझको भाया। बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के...
(6.)जान नही पाया उस रब से,क्या ज्यादा मांग लिया था। जो चाहा था दिल से उससे,क्यों कभी न मुझे दिया था। जो मन में था उसे बताया,कुछ भी तो नही छुपाया। बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के...
(7.)मेरा भी तो हक बनता है,हक से खुशी मनाने का। हक से बातें करने का हां,हक से हक जतलाने का।। क्यों जिसको भी चाहा मैंने,उससे ही धोखा खाया। बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के...
(8.)क्या बोलूं तुमको मैं अब तो,कुछ भी शेष नही है। किस्मत से अपनी लड़ जाऊं,अधिकार विशेष नही है।। चुप रहकर सब सहने वाला,तौर तरीका अपनाया। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह....
(9.)अभी पता क्या कितनी रातें,जाग के तूझे बितानी हैं। अभी नही ये सूखेगा जो,इन आंखों का पानी है।। अभी गमों को देना रहता, बहुत-सा तेरा बकाया। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह...
(10.)लिए कटोरा खाली मन का, किसकी राहें तांक रहा है। इधर कोई न देने वाला,जो खुशियां बांट रहा है। फिर क्यों आशाओं का तूने,दामन लंबा फैलाया। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह...
(11.)और लोग जो इस दुनिया में,कहां प्रेम सब पाते हैं। चोट सी खाकर किसी के हाथों,चुप से वो हो जाते हैं।। फिर तू ही यूं दुख मिलने पर,इतना क्यों रे चिल्लाया। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह...
(12.)बहुत सह लिया अब बिल्कुल भी,और नही सह पाऊंगी।ठान लिया अपने मन में यह,अब न किसी को चाहूंगी।। इच्छाओं पर अंकुश वाला,मोटा ताला लटकाया।। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह प्रेम कमाया...बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के हिस्से आया।अधरों के हिस्से आया....
__हरदीप कौर इन्सां 'शार'✍🏻
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