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प्रेम-पीड़ा और मन

  *गीत* बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के हिस्से आया।सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह प्रेम कमाया।।       (1.) मुझको लगता मैं ही बस इस,रिश्ते को खींच रही थी। मुरझाई सी हुई जड़ों को,व्यर्थ ही सींच रही थी। मुझमें ही तो दोष रहा जो,ख्वाबों का बाग सजाया।सोच रही हूं यही खड़ी क्यों, मैंने ....    (2.) समझाती हूं पागल मन को,क्यों विचलित हो उठता है। पहले भी तो था ऐसा ही,अब तेरा क्या दुखता है।। तब भी तो गमगीन रहा तू,अब भी वो ही सब पाया।सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह.....    (3.) पहले भी तो कितनी रातें,रोकर सभी गुजारी हैं। पहले जैसे ही तो अब भी,तुझ पर मुश्किल भारी है।। फिर क्यों तुझसे न अभी जाता,दुःखों का वजन उठाया। सोच रही हूं यही खड़ी क्यों,मैंने यह....    (4)मन कहता है दुख मिलने से,मुझको कुछ फर्क नही है। समझाऊं जो कहकर खुद को,ऐसा भी तर्क नही है। ख्यालों के धागों को मैंने,कितनी बारी सुलझाया। बस केवल कष्टों का प्याला,अधरों के...     (5.)सच होता है बेहद कड़वा,पीछा उससे छुड़वाता। पुलाव ख्याली दिन में रहता,मैं यूंही सदा पकाता। नित र...